लेकिन जो एक बहुत कैलकुलेटेड, कलात्मक और बारीक सा अमूर्त गुस्से को कविता होने को कविता के एक ज़रूरी गुण की तरह बताते हैं, जिनके यहाँ कवि का क्रोध किसी कुलीन सभा में बजने वाले दर्द भरे संगीत सा सुख देता है उनको अगर चंद्रकांत देवताले को ‘ काफी में विष देने ' की ‘ सात्विक इच्छा ' जगती है, तो उसे समझा जा सकता है.